Wednesday 28 August 2013

मेरे ख़यालो की दिल्ली

जो हमने सुना था , था पढ़ा,
न पाया उसे आकर इस नई दिल्ली में,
सोचते थे आ बसेंगे ग़ालिबो मीर व मोमिनों , जौक की उस दिल्ली में,
पाई वोह शोखिया कुछ अंशो मे,
जो देखि तो बस बड़ी गाडिया,
और उस्से भी बड़ी इमारते,
और उस्से पाने की जद्दो जहद,
में भागता हर आदमि,
ईस नई दिल्ली मे,
किया  गर्क  जो बेडा ,
ईस  देहली और तमीज़े देहली का ईस नई दिल्ली ने। 
पाया हम ने काफी ,
कम अंशो में देहली को। 
ढूंढ ढूंढ कर ईस नई दिल्ली में 
अदबो शौख की उस देहली को। 
आँखों में लिए अश्को को चला मैं ,
सोच की ईस अदब की यह आखरी चंद साँसे न हो !
पर लिए दिल में उम्मीद हम आये ,
लौट कर उस देहली में ,
जहाँ महफ़िलो में ,
उड़ने वाली दाद की गूंज ,
शायरों, कवियों और दास्तांगो ,
की सजनेवाली महफिले ,
रहे उड़ती उस हवा में ,
दरख्तों में और लोगों के खून में ,
ईस अदब की खुशबु। 
लौट के आए ईस भीड़ ऐ नई दिल्ली में मेरे वह ,
किताबों , कहानियों और इतिहास की दिल्ली 

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